Firaq Gorakhpuri Poetry, Ghazals
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Firaq Gorakhpuri |
रफ़्तार-ए-इंक़लाब सलामत रहे नदीम।
लाखों ही दौर आएंगे आज और कल के बीच।
फ़िराक़
हुज़ूर रोते थे क्यों मरने वाले के ग़म में।
सूकून ए इश्क़ से क्यों हुस्न बे-क़रार रहा।
फ़िराक़
चमकते दर्द खिले चेहरे मुस्कुराते अश्क
सजाई जाएगी अब तर्ज़-ए-नौ से बज़्म-ए-हयात
फ़िराक़
ऐ मेरी शामे-इंतेज़ार कौन ये आ गया लिए।
ज़ुल्फ़ों में इक शबे-दराज़ आंखों में कुछ कहानियां।
फ़िराक़
ये ख़याल-ए-महफ़िले-दोस्तां किसी अजनबी का है ये बयां।
वो जहां न समझें मेरी ज़बां वहीं क़िस्मतों से मिला वतन।
फ़िराक़
दिल-दुखे रोए हैं शायद इस जगह ऐ कू-ए-दोस्त
ख़ाक का इतना चमक जाना ज़रा दुश्वार था
फ़िराक़
ये हादसा है अजब तुझ को पा के खो देना
ये सानेहा है ग़ज़ब तेरी याद आई हुई
फ़िराक़
जब तक ऊँची न हो ज़मीर की लौ।
आँख की रौशनी.. नहीं मिलती।
फ़िराक़
इश्क़ में सच ही का रोना है।
झूठे नहीं तुम झूठे नहीं हम।
फ़िराक़
जो मुझको बदनाम करे हैं काश वे इतना सोच सकें
मेरा परदा खोले हैं या अपना परदा खोले हैं।
फ़िराक़
खो दिया तुम को तो हम पूछते फिरते हैं यही।
जिस की तक़दीर बिगड़ जाए वो करता क्या है।
फ़िराक़
बन्ध के जैसे इक घटा आहिस्ता-आहिस्ता खुले।
रफ़्ता-रफ़्ता ग़म के सब आसार मिट जाएंगे क्या?
फ़िराक़
ये जाहो-इज़्ज़त, ये नामो-शुहरत, है छाँव बस एक चलती-फिरती
बहुत न मग़रूर हो जाइयेगा फ़िराक़ साहब, फ़िराक़ साहब।
फ़िराक़
सुनते हैं इश्क़ नाम के गुज़रे हैं इक बुज़ुर्ग
हम लोग भी फ़क़ीर इसी सिलसिले के हैं
फ़िराक़
रफ़्ता-रफ़्ता इश्क़ को तस्वीरे-ग़म कर ही दिया।
हुस्न भी कितना ख़राब गर्दिशे-अय्याम था।
फ़िराक़
यूँ उतरती जाने वाली ए निगाह शर्मगीं।
डूब कर देखें निकलता है तेरा नश्तर कहाँ?
फ़िराक़
उसका पाना है वो करिश्मा।
सोच लो मुश्किल देख तो आसाँ।
फ़िराक़
ज़रा विसाल के बाद आईना तो देख ऐ दोस्त
तिरे जमाल की दोशीज़गी निखर आई !
फ़िराक़
मैंने छेड़ा था कहीं दुखते दिल का साज़
गूँज रही है आज तक दर्द भरी आवाज़।
फ़िराक़
टूटा दिल इस तरह के ख़ुदा याद आ गया।
इस आईने के टुकड़े सभी हक़ नुमा हुए।
फ़िराक़
“आने वाली नस्लें तुम पर रश्क करेंगी हम असरों
जब भी उनको ध्यान आएगा, तुमने फ़िराक़ को देखा है”
फ़िराक़
न बेख़बर थे न हुश्यार ताब थी न क़रार।
न पूछ इश्क़ के दिन किस तरह गुज़ारे हैं।
फ़िराक़
“तबीयत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
हम ऐसे में तेरी यादों की चादर तान लेते हैं”
फ़िराक़
क्यों झिझक उठते हैं अंजामे-मुहब्बत से फ़िराक़।
बाख़बर है इस की हर आसान हर मुश्किल से हम।
फ़िराक़
आज पैमाने-वफ़ा फिर याद कर ले इक बार।
आज होते हैं जुदा ए दोस्त तेरे दिल से हम।
फ़िराक़
क्या कुछ न हुआ ग़म से क्या कुछ न किया ग़म ने।
और यूँ तो हुआ जो कुछ बेकार नज़र आया।
फ़िराक़
अभी तो कुछ ख़लिश सी हो रही है चंद काँटों से
इन्हीं तलवों में इक दिन जज़्ब कर लूँगा बयाबाँ को।
फ़िराक़
"तुझे पाके ख़ुद को मैं पाऊँगा, कि तुझी में खोया हुआ हूँ मैं
ये तेरी तलाश है इसलिये, कि मुझे है अपनी ही जुस्तजू।"
फ़िराक़
शिव का विषपान तो सुना होगा।
मैं भी ए दोस्त पी गया आँसू।।
फ़िराक़
मासूम है मुहब्ब्त लेकिन उसी के हाथों।
ये भी हुआ कि मैंने तेरा बुरा भी चाहा।।
फ़िराक़
ख़ुनुक सियह महके हुए साए फैल जाएँ हैं जल-थल पर।
किन जतनों से मेरी ग़ज़लें रात का जूड़ा खोलें हैं।
फ़िराक़
क्यों इन्तेहाये शौक़ को कहते हैं बेख़ुदी।
खुर्शीद ही की आख़िरी मंज़िल तो रात है।
फ़िराक़
वो आलम होता है मुझ पर जब फ़िक्र-ए-ग़ज़ल मैं करता हूँ।
खुद अपने ख़यालों को हमदम मैं हाथ लगाते डरता हूँ।
फ़िराक़
सुब्ह आईना दिखाती है फ़जा को जिस वक़्त।
साफ़ इसमें तेरी तस्वीर नज़र आती है।
फ़िराक़
दयार-ए-ग़म में दिल-ए-बेक़रार छूट गया
सम्भल के ढूढने जाओ बहुत अंधेरा है
फ़िराक़
ज़ुल्मतो-नूर में कुछ भी न मुहब्बत को मिला।
आज तक एक धुँधलके का समां है कि जो था।
आज फिर इश्क़ दो आलम से जुदा होता है।
आस्तीनों में लिए कौनो-मकाँ है कि जो था।
फ़िराक़
गुलामी को कलेजे से लगाकर क्यूँ न रक्खे हम,
यह है मीरास अपनी बाप-दादा की कमाई है...
पसीने मौत के आने लगे अहल-ए-हुकूमत को,
प्रजा हठ राजहठ में बेधड़क ज़ोर-आज़माई है...
फ़िराक़
ये माना ज़िन्दगी है चार दिन की
बहुत होते हैं यारों चार दिन भी
खुदा को पा गया वाईज़, मगर है
जरुरत आदमी को आदमी की !
फ़िराक़
ये शाने-तुलूए-सुबह ये हुस्ने-चमन।
झिलमिल घूँघट में जैसे चौथी की दुल्हन।
हर शाख़ पे जगमगाती किरनों का तवाफ़।
तू जैसे कलाई में फिराए कंगन।
फ़िराक़
'फ़िराक़' देख शबे-ग़म गुदाज़े-क़ल्बे-नुजूम
छिड़ा हुआ है सुकूते-अबद का अफ़साना"
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"तारीकियाँ चमक गयीं आवाज़े-दर्द से
मेरी ग़ज़ल से रात की ज़ुल्फ़ें सँवर गयीं"
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"छिड़ते ही ग़ज़ल बढ़ते चले रात के साये
आवाज़ मिरी गेसू-ए-शब खोल रही है"
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"जब साज़े-ग़ज़ल को छूता हूँ, रातें लौ देने लगती हैं
ज़ुलमात के सीने में हमदम मैं रोज़ चराग़ाँ करता हूँ"
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"अब दौरे-आसमाँ है न दौरे-हयात है
ऐ दर्द-हिज्र, तू ही बता कितनी रात है"
फ़िराक़
मातृ दिवस पर फ़िराक़ को नहीं पढ़ा तो क्या पढ़ा ?
ये शाम मुझ को बना देती काश इक जुगनू
तो माँ की भटकी हुई रूह को दिखाता राह
कहाँ कहाँ वो बिचारी भटक रही होगी
कहाँ कहाँ मिरी ख़ातिर भटक रही होगी
ये सोच कर मिरी हालत अजीब हो जाती
पलक की ओट में जुगनू चमकने लगते थे
कभी कभी तो मिरी हिचकियाँ सी बंध जातीं
कि माँ के पास किसी तरह मैं पहुँच जाऊँ
और उस को राह दिखाता हुआ मैं घर लाऊँ
दिखाऊँ अपने खिलौने दिखाऊँ अपनी किताब
कहूँ कि पढ़ के सुना तो मिरी किताब मुझे
फिर इस के ब'अद दिखाऊँ उसे मैं वो कापी
कि टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें बनी थीं कुछ जिस में
ये हर्फ़ थे जिन्हें मैं ने लिक्खा था पहले-पहल
और उस को राह दिखाता हुआ मैं घर लाऊँ
दिखाऊँ फिर उसे आँगन में वो गुलाब की बेल
सुना है जिस को उसी ने कभी लगाया था
ये जब कि बात है जब मेरी उम्र ही क्या थी
नज़र से गुज़री थीं कल चार पाँच बरसातें
गुज़र रहे थे मह-ओ-साल और मौसम पर
हमारे शहर में आती थी घिर के जब बरसात
जब आसमान में उड़ते थे हर तरफ़ जुगनू
हवा की मौज-ए-रवाँ पर दिए जलाए हुए
फ़ज़ा में रात गए जब दरख़्त पीपल का!
हज़ारों जुगनुओं से कोह-ए-तूर बनता था
हज़ारों वादी-ए-ऐमन थीं जिस की शाख़ों में
ये देख कर मिरे दिल में ये हूक उठती थी
कि मैं भी होता इन्हीं जुगनुओं में इक जुगनू
तो माँ की भटकी हुई रूह को दिखाता राह
वो माँ मैं जिस की मोहब्बत के फूल चुन न सका
वो माँ मैं जिस से मोहब्बत के बोल सुन न सका
वो माँ कि भेंच के जिस को कभी मैं सो न सका
मैं जिस के आँचलों में मुँह छुपा के रो न सका
वो माँ कि घुटनों से जिस के कभी लिपट न सका
वो माँ कि सीने से जिस के कभी चिमट न सका
हुमक के गोद में जिस की कभी मैं चढ़ न सका
मैं ज़ेर-ए-साया-ए-उम्मीद जिस के बढ़ न सका
वो माँ मैं जिस से शरारत की दाद पा न सका
मैं जिस के हाथों मोहब्बत की मार खा न सका
सँवारा जिस ने न मेरे झंडूले बालों को
बसा सकी न जो होंटों से सूने गालों को
जो मेरी आँखों में आँखें कभी न डाल सकी
न अपने हाथों से मुझ को कभी उछाल सकी
वो माँ जो कोई कहानी मुझे सुना न सकी
मुझे सुलाने को जो लोरियाँ भी गा न सकी
वो माँ जो दूध भी अपना मुझे पिला न सकी
वो माँ जो हाथ से अपने मुझे खिला न सकी
वो माँ गले से मुझे जो कभी लगा न सकी
वो माँ जो देखते ही मुझ को मुस्कुरा न सकी
कभी जो मुझ से मिठाई छुपा के रख न सकी
कभी जो मुझ से दही भी बचा के रख न सकी
मैं जिस के हाथ में कुछ देख कर डहक न सका
पटक पटक के कभी पाँव मैं ठुनक न सका
कभी न खींचा शरारत से जिस का आँचल भी
रचा सकी मिरी आँखों में जो न काजल भी
वो माँ जो मेरे लिए तितलियाँ पकड़ न सकी
जो भागते हुए बाज़ू मिरे जकड़ न सकी
बढ़ाया प्यार कभी कर के प्यार में न कमी
जो मुँह बना के किसी दिन न मुझ से रूठ सकी
जो ये भी कह न सकी जा न बोलूँगी तुझ से
जो एक बार ख़फ़ा भी न हो सकी मुझ से
वो जिस को जूठा लगा मुँह कभी दिखा न सका
कसाफ़तों पे मिरी जिस को प्यार आ न सका
जो मिट्टी खाने पे मुझ को कभी न पीट सकी
न हाथ थाम के मुझ को कभी घसीट सकी
वो माँ जो गुफ़्तुगू की रौ में सुन के मेरी बड़
कभी जो प्यार से मुझ को न कह सकी घामड़
शरारतों से मिरी जो कभी उलझ न सकी
हिमाक़तों का मिरी फ़ल्सफ़ा समझ न सकी
वो माँ कभी जिसे चौंकाने को मैं लुक न सका
मैं राह छेंकने को जिस के आगे रुक न सका
जो अपने हाथ से बहरूप मेरे भर न सकी
जो अपनी आँखों को आईना मेरा कर न सकी
गले में डाली न बाहोँ की फूल-माला भी
न दिल में लौह-ए-जबीं से किया उजाला भी
वो माँ कभी जो मुझे बद्धियाँ पहना न सकी
कभी मुझे नए कपड़ों से जो सजा न सकी
वो माँ न जिस से लड़कपन के झूट बोल सका
न जिस के दिल के दराँ कुंजियों से खोल सका
वो माँ मैं पैसे भी जिस के कभी चुरा न सका
सज़ा से बचने को झूटी क़सम भी खा न सका।
● 'जुगनू नज़्म' का कुछ भाग .... पूरी नज़्म गूगल से पढ़ सकते हैं।
फ़िराक़
You made me disappointed with thousands of Venus.
This is another thing that I had some expectations from you too.
- Mr. Firaq
Where so much news, how did the life of love pass
It was your pain as far as I remember it
Where so much news, how did the age of love pass?
Your pain was as far as I remember.
- Mr. Firaq
There should be something else, except these gestures.
All this is a good thing, talk and talk. ।
- Mr. Firaq
Evenings ask for someone even today 'Firaq'
There is no shortage of me in life like this.
Evening asks for someone even today.
I don't have any shortage in life like this
- Mr. Firaq
This is the style of modesty of love.
The one who says with low eyes that we are yours.
- Mr. Firaq
I didn't even remember you for a long time
And we have forgotten you, not even like that
- Mr. Firaq
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